अग्निशेषम् ऋणशेषम् शत्रुशेषम् तथैव च...

अग्निशेषम् ऋणशेषम् शत्रुशेषम् तथैव च |

पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्मात् शेषम् न कारयेत् ||

यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।